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मर्ज़ !!

गवाह थी जो कुछ हसीन पलो की |
तो कुछ पल ये मेरा हमदर्द था ||

गरमाहट थी फिज़ाओ में, तेरी यादों से |
तो टूटे सपने से मौसम थोड़ा सर्द था ||

ख़ूबसूरती समेटे था जो कल तक मोहब्बत की |
वही जमाना आज कितना बेदर्द था ||

आगे बढ़ गयी तू समझदार बन कर |
हमें नही, सिर्फ मुझे ही मोहब्बत का मर्ज़ था ||

खाते रहे दोनों कई कसमे साथ में |
क्या उन्हें निभाना केवल मेरा ही फ़र्ज़ था ?

Author:

Not organized, But you will not find it messy. Not punctual, But will be there at right Time. Not supportive, But will be there, when needed. Not a writer, But you will find this interesting.

34 thoughts on “मर्ज़ !!

      1. आपने भुले बिसरे प्यार कि याद दिलायी है अब कुछ ना कुछ तो जरुर आवाज आयेगी दिल से…कविता coming soon….:)

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  1. बहुत खूब लिखे जज्बात दिल को उकेर के रख दिया।जो छुपी थी कहीं मोहबत दिल में उसको शायरी में ही कह दिया।

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  2. आगे बढ़ गयी तू समझदार बन कर |
    हमें नही, सिर्फ मुझे ही मोहब्बत का मर्ज़ था ||
    .
    .
    वाह. . . मजा आ गया 😊😘

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