मुद्दतो बाद, खुले आसमान में ,
एक हसीं शाम लिए बैठा हूँ |
बेफ़िक्रों के माफ़िक़, तक रहा परिंदो को,
ना कोई सोच, ना कोई काम लिए बैठा हूँ ||
चाहत, अरमान और ख्वाहिशों को छोड़ कर,
ना कोई दुआ, ना कोई सलाम लिए बैठा हूँ |
आज़ाद कर खुद को, फ़िक्रों से आज,
ना कोई दर्द, ना कोई इंतकाम लिए बैठा हूँ ||
शून्य कर खुद के दिलो दिमाग को,
खुद को खोजने आज, बिन ज़ाम लिए बैठा हूँ |
एक अरसा बीत गया इसे, उसे और सबको खुश करते,
भूल कर सब, बस अपना ही नाम लिए बैठा हूँ ||
कहने को तो एक शाम है, हर रोज़ जैसा,
पर कुछ पल खुद को इनाम दिए बैठा हूँ |
मुद्दतो बाद, खुले आसमान में ,
एक हसीं शाम लिए बैठा हूँ ||
Most lovely poem-the effort of searching yourself.Weldone,dear Rohit!!
LikeLiked by 1 person
Thank you so much Aruna ji
LikeLike
You are most welcome,dear!!
LikeLiked by 1 person
Most welcome🌷🌷🌷
LikeLiked by 1 person